Sumatinath Chalisa | सुमतिनाथ चालीसा | सुमतिनाथ भगवान की चालीसा
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सुमतिनाथ भगवान की चालीसा |
Sumatinath Bhagwan Chalisa full lyrics in Hindi is as given below -
( श्री सुमतिनाथ भगवान की चालीसा प्रारंभ )
दोहा -
पंचपरमगुरु को नमूँ, नमूँ शारदा मात।
सुमति प्रदान करें मुझे, सुमतिनाथ भगवान।।१।।
पंचम तीर्थंकर नमूँ, पंचमगति मिल जाए।
रोग-शोक बाधा टलें, चहुँदिश सुख हो जाए।।२।।
चौपाई -
जय हो तीर्थ अयोध्या की जय, शाश्वत जन्मभूमि की जय जय।।१।।
इस हुण्डावसर्पिणी युग में, नहीं यहाँ सब जिनवर जन्में।।२।।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी, अजितनाथ, अभिनन्दन प्रभु जी।।३।।
जन्मे इसी अयोध्या जी में, पुन: यहीं पर सुमतिनाथ ने।।४।।
जन्म लिया मंगलावति माँ से, पिता मेघरथ धन्य हुए थे।।५।।
गर्भतिथी श्रावण सुदि दुतिया, आय स्वर्ग से देव-देवियाँ।।६।।
मात-पिता की पूजा करते, पुन: न गर्भवास हो जिससे।।७।।
नव महिने के बाद बंधुओं! चैत्र सुदी एकादशि तिथि में।।८।।
सुमतिनाथ ने जन्म लिया था, त्रिभुवन में आनन्द हुआ था।।९।।
सुरपति ऐरावत पर चढ़कर, आए मध्यलोक में तत्क्षण।।१०।।
तीर्थंकर शिशु को ले करके, मेरु सुदर्शन पर जा पहुँचे।।११।।
जन्म न्हवन सब इन्द्रगणों ने, मिलकर किया खूब उत्सव से।।१२।।
सबके मन में यही भावना, बार-बार मम जन्म होयना।।१३।।
हम भी ऐसी माँ से जन्में, जो सोलह स्वप्नों को देखें।।१४।।
सुमतिनाथ जब युवा हो गए, राज्यकार्य में लिप्त हो गए।।१५।।
इक दिन जातिस्मरण हुआ था, तब उनको वैराग्य हुआ था।।१६।।
पंचमस्वर्ग के देवों ने आ, पंचमस्वर से की थी प्रशंसा।।१७।।
तिथि वैशाख सुदी नवमी थी, जिस दिन प्रभु ने दीक्षा ली थी।।१८।।
बीस वर्ष तक महामुनी वे, तप करते थे सघन वनों में।।१९।।
पुन: चैत्र सुदि एकादशि को, केवलज्ञान प्रगट हुआ उनको।।२०।।
धनपति ने झट समवसरण की, रचना अधर गगन में कर दी।।२१।।
गंधकुटी में सुमति जिनेश्वर, चमक रहे थे सूर्य-शशी सम।।२२।।
इनकी दिव्यसभा में गणधर, इक सौ सोलह थे सब मिलकर।।२३।।
तीन लाख अरु बीस सहस मुनि, सबमें ज्ञानभरा था खुब ही।।२४।।
दिव्यध्वनि से सुमतिप्रभू ने, भव्यों को संतर्पित करके।।२५।।
पुन: चैत्र सुदि ग्यारस तिथि में, मुक्ति धाम को पाया प्रभु ने।।२६।।
श्री सम्मेदशिखर की धरती, मोक्ष से पावन-पूज्य बनी थी।।२७।।
ऐसे पंचकल्याणक से युत, सुमतिनाथ को करें नमन हम।।२८।।
तीर्थ अयोध्या जन्मभूमि में, सुमतिनाथ प्रभुवर की टोंक पे।।२९।।
मन्दिर बना हुआ है सुन्दर, उसमें प्रभु की प्रतिमा मनहर।।३०।।
पूज्य ज्ञानमति माताजी की, दिव्यप्रेरणा प्राप्त हुई है।।३१।।
धर्मनिष्ठ श्रावक के द्वारा, हुआ टोंक का जीर्णोद्धार।।३२।।
भगवन्! ऐसी शक्ती दीजे, मेरी मति सु-मती कर दीजे।।३३।।
यह मन कभी भटक न जावे, चाहे कितने संकट आवें।।३४।।
मेरा मन तुम चरणों में हो, तुम पदकमल मेरे मन में हो।।३५।।
यह इच्छा बस करना पूरी, रखना नहीं स्वयं से दूरी।।३६।।
सुमतिनाथ तीर्थंकर भगवन्! वर्ण आपका सुन्दर स्वर्णिम।।३७।।
चकवा चिन्ह सहित प्रभुवर हैं, तीन शतक धनु ऊँचा तन है।।३८।।
प्रभुवर! जैसे अविचल कूट से, अविचल पद पाया है तुमने।।३९।।
वैसे ही मैं भी प्रभु इक दिन, प्राप्त करूँ ‘‘सारिका’’ वही पद।।४०।।
शंभु छंद -
यह सुमतिनाथ का चालीसा, पढ़ने से सुमति प्राप्त होवे।
कुमति-कुज्ञान दूर भगते, बुद्धी निर्मल सम्यक् होवे।।
इस सदी बीसवीं में गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी हैं।
शिष्या उनकी वात्सल्यचन्द्रिका मात चन्दनामति जी हैं।।१।।
उनकी ही प्रेरणा हुई इस, चालीसा को लिखने में।
यह और नहीं कुछ केवल गुरु की, कृपादृष्टि का ही फल है।।
यह चालीसा का पाठ सभी के लिए सदा मंगलमय हो।
धन-धान्य-सम्पदा बढ़े सदा, भक्तों का जीवन सुखमय हो।।२।।
पंचपरमगुरु को नमूँ, नमूँ शारदा मात।
सुमति प्रदान करें मुझे, सुमतिनाथ भगवान।।१।।
पंचम तीर्थंकर नमूँ, पंचमगति मिल जाए।
रोग-शोक बाधा टलें, चहुँदिश सुख हो जाए।।२।।
चौपाई -
जय हो तीर्थ अयोध्या की जय, शाश्वत जन्मभूमि की जय जय।।१।।
इस हुण्डावसर्पिणी युग में, नहीं यहाँ सब जिनवर जन्में।।२।।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी, अजितनाथ, अभिनन्दन प्रभु जी।।३।।
जन्मे इसी अयोध्या जी में, पुन: यहीं पर सुमतिनाथ ने।।४।।
जन्म लिया मंगलावति माँ से, पिता मेघरथ धन्य हुए थे।।५।।
गर्भतिथी श्रावण सुदि दुतिया, आय स्वर्ग से देव-देवियाँ।।६।।
मात-पिता की पूजा करते, पुन: न गर्भवास हो जिससे।।७।।
नव महिने के बाद बंधुओं! चैत्र सुदी एकादशि तिथि में।।८।।
सुमतिनाथ ने जन्म लिया था, त्रिभुवन में आनन्द हुआ था।।९।।
सुरपति ऐरावत पर चढ़कर, आए मध्यलोक में तत्क्षण।।१०।।
तीर्थंकर शिशु को ले करके, मेरु सुदर्शन पर जा पहुँचे।।११।।
जन्म न्हवन सब इन्द्रगणों ने, मिलकर किया खूब उत्सव से।।१२।।
सबके मन में यही भावना, बार-बार मम जन्म होयना।।१३।।
हम भी ऐसी माँ से जन्में, जो सोलह स्वप्नों को देखें।।१४।।
सुमतिनाथ जब युवा हो गए, राज्यकार्य में लिप्त हो गए।।१५।।
इक दिन जातिस्मरण हुआ था, तब उनको वैराग्य हुआ था।।१६।।
पंचमस्वर्ग के देवों ने आ, पंचमस्वर से की थी प्रशंसा।।१७।।
तिथि वैशाख सुदी नवमी थी, जिस दिन प्रभु ने दीक्षा ली थी।।१८।।
बीस वर्ष तक महामुनी वे, तप करते थे सघन वनों में।।१९।।
पुन: चैत्र सुदि एकादशि को, केवलज्ञान प्रगट हुआ उनको।।२०।।
धनपति ने झट समवसरण की, रचना अधर गगन में कर दी।।२१।।
गंधकुटी में सुमति जिनेश्वर, चमक रहे थे सूर्य-शशी सम।।२२।।
इनकी दिव्यसभा में गणधर, इक सौ सोलह थे सब मिलकर।।२३।।
तीन लाख अरु बीस सहस मुनि, सबमें ज्ञानभरा था खुब ही।।२४।।
दिव्यध्वनि से सुमतिप्रभू ने, भव्यों को संतर्पित करके।।२५।।
पुन: चैत्र सुदि ग्यारस तिथि में, मुक्ति धाम को पाया प्रभु ने।।२६।।
श्री सम्मेदशिखर की धरती, मोक्ष से पावन-पूज्य बनी थी।।२७।।
ऐसे पंचकल्याणक से युत, सुमतिनाथ को करें नमन हम।।२८।।
तीर्थ अयोध्या जन्मभूमि में, सुमतिनाथ प्रभुवर की टोंक पे।।२९।।
मन्दिर बना हुआ है सुन्दर, उसमें प्रभु की प्रतिमा मनहर।।३०।।
पूज्य ज्ञानमति माताजी की, दिव्यप्रेरणा प्राप्त हुई है।।३१।।
धर्मनिष्ठ श्रावक के द्वारा, हुआ टोंक का जीर्णोद्धार।।३२।।
भगवन्! ऐसी शक्ती दीजे, मेरी मति सु-मती कर दीजे।।३३।।
यह मन कभी भटक न जावे, चाहे कितने संकट आवें।।३४।।
मेरा मन तुम चरणों में हो, तुम पदकमल मेरे मन में हो।।३५।।
यह इच्छा बस करना पूरी, रखना नहीं स्वयं से दूरी।।३६।।
सुमतिनाथ तीर्थंकर भगवन्! वर्ण आपका सुन्दर स्वर्णिम।।३७।।
चकवा चिन्ह सहित प्रभुवर हैं, तीन शतक धनु ऊँचा तन है।।३८।।
प्रभुवर! जैसे अविचल कूट से, अविचल पद पाया है तुमने।।३९।।
वैसे ही मैं भी प्रभु इक दिन, प्राप्त करूँ ‘‘सारिका’’ वही पद।।४०।।
शंभु छंद -
यह सुमतिनाथ का चालीसा, पढ़ने से सुमति प्राप्त होवे।
कुमति-कुज्ञान दूर भगते, बुद्धी निर्मल सम्यक् होवे।।
इस सदी बीसवीं में गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी हैं।
शिष्या उनकी वात्सल्यचन्द्रिका मात चन्दनामति जी हैं।।१।।
उनकी ही प्रेरणा हुई इस, चालीसा को लिखने में।
यह और नहीं कुछ केवल गुरु की, कृपादृष्टि का ही फल है।।
यह चालीसा का पाठ सभी के लिए सदा मंगलमय हो।
धन-धान्य-सम्पदा बढ़े सदा, भक्तों का जीवन सुखमय हो।।२।।
( समाप्त )
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