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सुपार्श्वनाथ चालीसा | Suparshwanath Bhagwan Chalisa

Suparshwanath Chalisa | सुपार्श्वनाथ भगवान चालीसा | सुपार्श्वनाथ चालीसा

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Suparshwanath Chalisa lyrics 

Suparshwanath Bhagwan Chalisa full lyrics in Hindi is as given below -

( श्री सुपार्श्वनाथ भगवान चालीसा प्रारंभ )

दोहा -
चार घातिया कर्म को, नाश बने अरिहंत।
अष्टकर्म को नष्टकर, बने सिद्ध भगवंत।।१।।
छत्तिस मूलगुणों सहित, श्री आचार्य महान।
पच्चिस गुण संयुक्त हैं, उपाध्याय गुरु जान।।२।।
गुण अट्ठाइस साधु के, ये पाँचों परमेष्ठि।
इनको वंदूँ मैं सदा, श्रद्धा भक्ति समेत।।३।।
बिना सरस्वती मात के, होता नहिं कुछ ज्ञान।
इसीलिए उनको करूँ, शत-शत बार प्रणाम।।४।।

चौपाई -
श्री सुपार्श्व के चरण कमल को, अपने मनमंदिर में रखके।।१।।
कुछ क्षण ध्यान करें यदि प्रियवर! शान्ति मिलेगी अद्भुत अनुपम।।२।।
प्रभु तुम हो सप्तम तीर्थंकर, स्वस्तिक चिन्ह सहित हो प्रभुवर।।३।।
तुम हो हरित वर्ण के धारी, राग-द्वेष विरहित अविकारी।।४।।
नगरि बनारस में तुम जन्मे, नरकों में भी कुछ क्षण सुख के।।५।।
पृथ्वीषेणा माँ पुलकित थीं, नहिं सीमा थी पितु के सुख की।।६।।
भादों शुक्ला षष्ठी तिथि में, मात गर्भ में आए प्रभु जी।।७।।
शुक्तापुट में मुक्ताफलवत्, माँ को क्लेश नहीं था विंâचित्।।८।।
पुन: ज्येष्ठ शुक्ला बारस तिथि, जिनवर जन्म से धन्य हुई थी।।९।।
अठ सौ कर ऊँचे प्रभुवर की, आयू बीस लाख पूरब थी।।१०।।
शास्त्रों में इक बात लिखी है, जिनवर नाम रखे सुरपति ही।।११।।
किसी समय ऋतु परिवर्तन को, देख प्रभू वैरागी हो गए।।१२।।
तत्क्षण देव पालकी लाए, उस पर बैठ प्रभू बन जाएँ।।१३।।
बेला का ले लिया नियम था, नम: सिद्ध कह ले ली दीक्षा।।१४।।
इक हजार राजा भी संग में, दीक्षा ले तप में निमग्न थे।।१५।।
फाल्गुन कृष्णा षष्ठी तिथि में, प्रभु के कर्म घातिया विनशे।।१६।।
ज्ञानावरण-दर्शनावरणी, मोहनीय अरु अन्तराय भी।।१७।।
ये चारों ही कर्मघातिया, इनसे आत्मगुणों को बाधा।।१८।।
कौन सा कर्म नष्ट हो करके, किस गुण को प्रगटित करता है।।१९।।
यह तुम जानो आज बंधुओं! अच्छे से फिर याद भी कर लो।।२०।।
ज्ञानावरण कर्म जब नशता, ज्ञान अनन्त उपस्थित होता।।२१।।
कर्म दर्शनावरण नशे जब, अनन्त दर्शन प्रगटित हो तब।।२२।।
मोहनीय सब ही कर्मों का, प्रियवर! राजा है कहलाता।।२३।।
इसका नाश करें जब प्रभुवर! तब प्रगटित हो क्षायिक समकित।।२४।।
अन्तराय का नाश करें जब, वीर्य अनन्त प्रगट होता तब।।२५।।
ये केवलज्ञानी भगवन् के, चार अनन्तचतुष्टय प्रगटें।।२६।।
प्रातिहार्य हैं आठ कहाए, नाम तुम्हें हम उनके बताएँ।।२७।।
तरु अशोक-सिंहासन सुंदर, तीन छत्र-भामण्डल मनहर।।२८।।
दिव्यध्वनि-पुष्पों की वृष्टी, चौंसठ चंवर और सुरदुंदुभि।।२९।।
ये सब तो अर्हंत प्रभू के, छ्यालिस गुण में से ही कहे हैं।।३०।।
अब तुम सुनो सुपार्श्वप्रभू के, अष्टकर्म कब नष्ट हुए थे ?।।३१।।
फाल्गुन कृष्णा सप्तमितिथि में, मोक्षधाम में पहुँचे प्रभु जी।।३२।।
नाथ! आप त्रैलोक्य गुरु हैं, भक्तों को सब सुख देते हैं।।३३।।
श्री सम्मेदशिखर की धरती, मोक्ष से पावन-पूज्य हुई थी।।३४।।
इक्कीसवीं टोंक की मिट्टी, सब रोगों को नष्ट है करती।।३५।।
तुम भी उस मिट्टी को लगाओ, तन अपना नीरोग बनाओ।।३६।।
श्री सुपार्श्व जिनराज तुम्हें हम, शत-शत बार नमन करते हैं।।३७।।
प्रभु ने पंचकल्याणक वैभव, प्राप्त किए हैं पुण्य उदय से।।३८।।
मुझको भी प्रभु शक्ती दे दो, पुण्य करूँ यह बुद्धी दे दो।।३९।।
तभी ‘‘सारिका’’ पुण्य की गगरी, मेरी पूरी भरे शीघ्र ही।।४०।।

शंभु छंद -
श्री सुपार्श्व जिनराज का, यह चालीसा पाठ।
पढ़ने से मिल जाएगा, तुमको निज साम्राज्य।।१।।
गणिनी माता ज्ञानमती, श्रुतचन्द्रिका महान।
उनकी शिष्या चन्दना-मती मात विख्यात।।२।।
शिष्याशिरोमणी हैं ये, शिष्याओं में प्रधान।
उनकी पावन प्रेरणा, से ही लिखा ये पाठ।।३।।
पढ़ने वाले भक्तगण, प्राप्त करें श्रुतज्ञान।
जग के सब सुख प्राप्त कर, दूर करें अज्ञान।।४।।
( समाप्त )

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